संपादकीय
पुलिस महकमा मूल रूप से तकरीबन डेढ़ सौ साल पहले बने नियमों-कानूनों के हिसाब से चलाया जा रहा है। आजादी के बाद न केवल पुलिस महकमे में बल्कि इण्डियन सिविल सर्विस में भी आमूल-चूल बदलाव किए जाने जरूरी थे, मगर ऐसा हुआ नहीं। बहरहाल, इस मामले में आज़ाद देश की सरकारों ने हीला-हवाली की है और नतीजा सामने है। बढ़ते अपराध का ठीकरा फौरन पुलिस के सर पर पटक दिया जाता है। पुलिस की मानसिक जद्दोजहद को समझने की ईमानदार कोशिश कोई नहीं कर रहा है। इस जद्दोजहद और उधेड़बुन ने पुलिस कर्मियों और अफसरों को मशीन में तब्दील कर दिया है। एक मशीन से आखिर आप कितनी इंसानियत की उम्मीद कर सकते हैं। किसी मानव को मशीन बनाकर उससे मानवता की उम्मीद करना समझ से परे है। रक्षा बंधन के पावन अवसर पर यदि हम लोग वाकई बहनों और माताओं की सुरक्षा चाहते हैं और बेटी बचाओ बेटी पढ़़ाओ के नारे को जमीन पर कारगर होते देखना चाहते हैं तो हमें सीमा के अन्दर के इन फौजियों को सीमा पर खड़े फौजियों जैसा सम्मान देना होगा। यदि हम सीमाओं के अन्दर सुरक्षित नहीं, तो हमारी सीमाएं भी सुरक्षित नहीं। लिहाजा, पुलिसकर्मियों और अफसरों को कोल्हू के बैलों की तरह असीमित समय तक ड्यूटी के नाम पर बाँधे रखना मानवाधिकारों का सरासर उल्लंघन भी है। इन्हें भी अपने बीबी-बच्चों, आस-पड़ोस और रिश्तेदारों के लिए समय चाहिए। ऐसा करके ये चुस्त-दुरूस्त और तरोताजा रह सकते हैं। तभी तो ये सीमा के अन्दर के फौजी हमारी-आपकी सुरक्षा कर पाएंगे। समाज में लगातार बढ़ रहे अपराध को अंकुश में रख पाएंगे। इन्हें किसी भी सूरत में 8 घण्टे से ज्यादा काम नहीं करने देना चाहिए। यदि इस दिशा में सोचा गया तो होमगार्ड सहित अन्य पुलिस कार्योे से जुड़े़ लोगों को भी काम करने का मौका मिलेगा। पुलिस महकमे और होमगार्ड में रोजगार के अवसर बढ़ जाएंगे। पुलिस की शारीरिक और मानसिक स्थिति बेहतर होगी और बेहतर अनुशासन के चलते इनसे बेहतर नतीजे प्राप्त किये जा सकेंगे। समाज में बढ़ता अपराध न केवल अंकुश में आ जाएगा बल्कि धीरे-धीरे न्यूनतम हो जाएगा। सम्भव हो तो इन्हें हफ्ते में दो दिन की छुट्टी दी जानी चाहिए। यदि हम पुलिस के मामले में मौलिक सोच का परिचय नहीं देंगे तो पुलिस में फैले भ्रष्टाचार पर भी अंकुश लगाना सम्भव नहीं हो पाएगा। यदि हम सीमा के अन्दर वाले इन फौजियों को इंसान का दर्जा नहीं देंगे तो इनसे भी इन्सानियत की उम्मीद करना छोड़ दीजिए। अंग्रेजों के जमाने के नियम कानून बदल दीजिए और बेहतर भारत की दिशा में एक ठोस कदम उठाइए। अन्यथा, पुलिस व्यवस्था में छायी परम्परागत खामियों का रोना रोते रहिए और चौतरफा अपराध वृद्धि पर माथा पकड़़ कर बैठे रहिए। यदि पुलिस व्यवस्था को आज के हालात के हिसाब से फुर्तीला बनाना है तो बुनियादी बदलावों से मुँह नहीं मोड़़ सकते। देश का जो कोई मुख्यमंत्री पुलिस महकमें में व्यवहारिक सुधार के लिए कदम उठाएगा, यकीनन आने वाली पीढ़ियाँ भी उसका जय-जयकार करेंगी। पुलिस, मित्र बनकर समाज को व्यवस्थित रखने में मददगार साबित होगी।
Virendra Dev Gaur (Veer Jhuggiwala)
Chief Editor(NWN)