
मसूरी (संवाददाता)। उतराखंड में आज भी कई ऐसी परंपराएं जिंदा हैं,जिसे पढकर हर कोई आनंदित हो जायेगा। इनमें से एक रंवाई,जौनपुर,जौनसार का सामुहिक रूप से मछलियां पकडने का ऐतिहासिक मौण मेला शामिल है। बतादें कि शुक्रवार को मछलियां पकडने का सामुहिक मौण मेला अगलाड नदी में धूमधाम व हर्षेाउल्लास से मनाया जायेगा। मेले में टिहरी जिले के जौनपुर विकासखंड, देहरादून के जौनसार और उतरकाशी के गोडर खाटर पटियों के हजारों लोग भाग लेगे। मेले की खास बात यह है कि नदी में डिमरू का पाउडर डालने से पहले ग्रामीण ढोल दमाउ की थाप पर जमकर नृत्य करते हैं। दरअसल टिमरू के तने की छाल को सुखाकर तैयार किये गये चूर्ण को मौण कहते हैं। मौण के लिए दो महिने पहले से ही ग्रामीण टिमरू के तनों को काटकर इक्कठा करना शुरू कर देते हैं। मेले के कुछ दिन पूर्व टिमरू के तनों को आग में भूनकर इसकी छाल को ओखली या घराट में बारिक पाउडर के रूप में तैयार किया जाता है। हर बार टिमरू का पाउडर बनाने का काम अलग अलग पटटी को दिया जाता है और इस बार टिमरू पाउडर बनाने का कार्य छैज्यूला पटटी की उप पटटी सिलगांव के जिम्मे है,जिसमे सैंजी,भटोली,भेडियाणा,कसोन,कांडा,पाली,बनोगी,कांडीखाल,सरतली,गावखेत,तिमलियाल गांव सहित 19 गांव शामिल हैं। शुक्रवार को मौणकोट नामक स्थान से अगलाड नदी में टिमरू का पाउडर पानी में डाला जायेगा,इसके बाद हजारों की संख्या में बच्चे,युवा और वृद्ध नदी की धारा के साथ मछलियां पकडनी शुरू कर देते हैं। यह सिलसिला लगभग चार किलोमीटर तक चलता है जो नदी के मुहाने में जाकर खत्म होता है। टिमरू पाउडर की खास बात यह है कि इससे जलीय जीवों को नुकसान नहीं पहुचता और इससे कुछ समय के लिए मछलियां बेहोश हो जाती हैं। इस दौरान ग्रामीण अपने कुण्डियाडा,फटियाडा,जाल व हाथों से मछलियां पकडत हैं और जो मछलियां पकड में नहीं आती वह पानी में बहकर फिर जीवित हो जाती हैं। गौरतलब है कि टिहरी रियासत के राजा नरेंद्र शाह द्वारा स्वयं अगलाड नदि में पहुंचकर मौण मेला शुरू किया गया था,जिसके बाद 1844 में आपसी मतभेद के कारण यह बंद हो गया। जिसके बाद जौनपुर की अदभुत लोक संस्कृति को देखकर तब टिहरी नरेश सुदर्शन शाह ने वर्ष 1866 में इसी स्थान पर पहुंचकर मौण मेले की शुरूवात कर दी थी। तब से आज तक उसी उत्साह के साथ जौनपुर का ऐतिहासिक मौण मेला मनाया जाता है। राजशाही के जमाने में अगलाड नदी का मौण उत्सव राजमौण उत्सव के रूप मे मनाया जाता था,उस समय मेले के आयोजन की तिथि रियासत के राजा तय करते थे।