संपादकीय
कुहु गर्ग की असीम क्षमताओं का लाभ मुख्यमंत्री को उठाना चाहिए। राज्य में एक स्पष्ट खेल नीति बनाकर कुहु गर्ग जैसी उम्दा खिलाड़ियों की निगरानी में जीरो उम्र से बच्चो के अन्दर खेल की भावना इस तरह डाली जानी चाहिए कि खेल उनकी रग-रग में समा जाए। दर्जा दो-तीन तक आते-आते ये बच्चे आधे खिलाड़ी बन जाएं। ऐसे बच्चो के लिए अलग स्कूल खोले जाने चाहिएं। इस काम में सरकार को भरसक मदद करनी चाहिए। इन स्कूलों में अलग ढंग के पाठ्यक्रम तय हों। इन पाठ्यक्रमों में देश-विदेश के तमाम खेलो का इतिहास होना चाहिए। ये पाठ्यक्रम तनिक भी तनाव देने वाले न हों। हर तरह के खेलो से जुड़ी तकनीकियाँ, बारीकियाँ और इन खेलों के वैज्ञानिक पहलुओं के साथ-साथ अभिनव सोच को पुस्तको में लिखा जाना चाहिए। इन खेल-खिलाड़ी बच्चों के सर पर गणित, विज्ञान, अग्रेंजी, हिन्दी, उर्दू, सस्ंकृत, भूगोल, अर्थशास्त्र, रसायन विज्ञान का बोझा न डाला जाए। इनके मौलिक, भौतिक और नैतिक विकास के लिए अनुकूल पाठ्यक्रम तय हों जिसमे बाबा रामदेव के योग-विज्ञान को शामिल किया जाए। योग, खेल, नैतिकता, देशप्रेम और इन्सानियत का ऐसा मिलाजुला रूप इनके पाठ्यक्रम में होना चाहिए जो इन्हे बेहतरहीन खिलाड़ी के साथ-साथ शानदार इन्सान भी बनाए। कुहु गर्ग जैसे खिलाड़ी हमारे देश की तमाम परम्परागत अड़चनों से जूझते हुए राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पायदानो तक पहुँच जाते हैं मगर इनके बढ़ते कदमो को यकायक थाम लेने वाली विडम्बनाओं पर हम कतई विचार करने को तैयार नहीं हैं। खेल को खेल की भावना से लेना अच्छी बात है किन्तु पराक्रम के मामले में समझौता करना अच्छी बात नहीं। खेलो की दुनिया में देश के पराक्रम को ऐवरेस्ट की ऊँचाई देने के लिए हमें एक साधारण बालक-बालिका को कुहु गर्ग बनाना है और कुहु गर्ग जैसी बालिकाओं को दुनिया के फलक पर जोरदार तरीके से लाना है। ऐसा करने के लिए खेल की अलग नीति तय होनी जरूरी है। यह हासिल करने के लिए बड़ा कदम जड़ से उठाना होगा। सीधी बात यह है कि खिलाड़ी बनाने के लिए एकदम अलग स्कूलों की स्थापना हों जहाँ पल-पल खेल की बाते हो। किताबों में भी खेल हो और कहानियों में भी खेल। यही नहीं बल्कि उनकी किताबें भी विशुद्ध रूप से खेलों पर आधारित हों। जहाँ के शिक्षक, चपरासी, झाडू पोछा करने वालो से लेकर प्रधानाचार्य तक सब खिलाड़ी हों। इसके अलावा खेल मंत्री भी खिलाड़ी हों और विभाग का सचिव भी खिलाड़ी हों। हमें आधे मन से तिकड़में भिड़ाना छोड़कर देशभक्ति की भावना से खेलो का विकास करना होगा। योग और खेल का ऐसा संगम बनाना होगा-जो देश की हवाओं के रुख बदलकर रख दे। आज ओलम्पिक स्तर पर जब कभी एक सिल्वर का तमगा हाथ लग जाता हैं तो एक अरब भारतीय झूम उठते हैं। यह हमारा बड़प्पन नहीं हमारी कंगाल सोच का नतीजा है। यदि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हमे दबदबा कायम करना है तो हमे मौलिक सोच का परिचय देना होगा। किसी की नकल करने की ज़रूरत नहीं है। हमे जीरो से शुरू होकर खिलाड़ी तैयार करने के लिए अलग विद्यालयों की स्थापना करनी होगी अन्यथा बने रहिए यों ही भिखारी और अंधे की लकड़ी की तरह क्रिकेट-क्रिकेट के भजन गाते रहिए और मस्त रहिए। यदि इस नीति पर अमल कर लिया गया तो मात्र दस-पन्द्रह सालों के बाद भारत की मैडल टैली ओलम्पिक में सौ के पार होगी और वह भी गोल्ड मैडलो के मामले में। आइए, उत्तराखंड से देश निर्माण का संकल्प लें।
Virendra Dev Gaur (Veer Jhuggiwala)
Chief Editor(NWN)