चीन की शह पर नेपाल ने गुस्ताखी की है।दोनों इतिहास में घुसकर अपने देशों के पुराने नक्शों से जो बाबा आदम जमाने के देशों की पुरानी विवादित सीमाओं को आज अपनी बता रहे हैं,उसकी बिनाह पर नेपाल को भारी नुकसान उठाना पडेगा।काईयां चीन तो दूर है,वह शक्तिशाली तो बचा रहेगा।पर भिखमंगा नेपाल कल भारत की बिना मदद के भूखों मरेगा। नेपाल या चीन अगर इतिहास में जायेंगे तो चीन को 221 ईसा पूर्व के चिन राजवशं से 1912 तक के विभाजित चीन में जाना पडेगा और तिब्बत तो तत्काल छोडना होगा,इसलिए कि तिब्बत तो सदियों से एक स्वायत्त देश था,जिसपर चीन ने 1949 की जनक्रांति के बाद जबरन कब्जा किया।और नेपाल को भी 1768 पूर्व के खंड खंड नेपाल में लौटना होगा,जब गोरखाली राजा पृथ्वीनारायण शाह ने पुराने काठमांडू,पाटन और भादगांऊ(आज का भक्तपुर) को युद्धों से जीतकर नेपाल अधिराज्य बनाया था। आज नेपाल,भारत खासकर उत्तराखंड के इलाकों को अपने नक्शे में शामिल कर उत्तराखंड में 200 साल पुराने अपने किए गये अनाचारों और कुकर्मों की फिर से क्यों याद दिला रहा?गढवाल और कुमांऊ के लोग आज भी 1790-1814 के बीच नेपालियों के बलपूर्वक उत्तराखंड पर किये गये अवैध आधिपत्य को आज तक नहीं भूले हैं।गोरखों की बर्बरता और राक्षसी अत्याचार की ‘गोरख्याणी’ और ‘गोरख्याल’ के पुराने लोकगीत आज भी गांव में गाये जाते हैं और नेपाली सेनापति अमरसिहं थापा और हस्तिदल चोतरिया के जुल्मों के निशान अब भी उत्तराखंड के चप्पे चप्पे में बिखरे पडे हैं। मानवता को शर्मसार कर दिया था गोरखा अत्याचारियों ने। अंतरराष्ट्रीय नियमों के अनुसार नेपाल 2 दिसम्बर1815 की सुगोली संधि की अवहेलना कैसे कर सकता है,जिसपर बाकायदा नेपाल के तत्कालिन राजगुरु गजराज मिश्रा और चंद्रशेखर उपाध्याय ने दस्तखत किये थे।यह याद रखा जाना चाहिए कि राष्ट्रीय सीमाओं की लिखित और नैतिक अवधारणा अंग्रेजों ने दी। ऐतिहासिक ब्रिटिशकालिन सीमा संधियों को आज भी संयुक्त राष्ट्र संघ(यूएनओ) मान्य करता है।दुनिया के वर्तमान किसी भी मुल्क की राष्ट्रीय स्वायत्तता आज इसी आधार पर स्वीकृत की गयी हैं।अगर नेपाल और चीन ऐसी संधियों को अमान्य कर युद्ध चाहते हैं तो फिर युद्ध ही सही।नेपाल याद रखे कि वह भले ही अपना नक्शा बनाकर खुश हो जाये,पर उसे भारत से पंगा लेकर इस विवाद में बहुत कुछ खोना होगा।मुझे तो संदेह है कि नेपाल या चीन में कोई वामपंथ बचा भी है या कम्युनिज्म के नामपर घपरोल मची पडी है।
Jaiprakash Uttrakhandi
Historian & Senior journalist