
जल कर ख़ाक हो चुके जंगल की आत्मा ने कहा
कुछ दिन पहले तक
मैं हरा-भरा बाँका जवान था
मेरा बूटा-बूटा पत्ती-पत्ती हर लता बेल
जुटे थे वातावरण को ठंडक से भरने में
छोटे-बड़े तमाम पशु-पक्षी कीड़े-मकोड़े अंडे बच्चे
मेंढक बिच्छू साँप तितलियाँ सभी तो थे मगन
हरा-भरा खुशहाल था मेरा चमन
चिता में मुझे मेरे समाज के साथ घेरकर जिंदा जलाने वाले मानव बेरहम।
पूरा का पूरा परिवार मेरा
जिंदा जला दिया मानव तूने
हमने आखिर तेरा बिगाड़ा क्या था
हम तो तेरी साँसों के लिये
ताजी हवा का भंडार भरने में जुटे थे
तेरी छोड़ी हवा से अपना खाना बनाने वाले स्वावलम्बी जीव थे हम
हम तो सोने जैसी माटी को सीने से लगाए बैठे थे
हम धरती के अन्दर बारिश का मीठा पानी
बूँद-बूँद धोकर जमा कर रहे थे तेरे लिये
मानव तू तो अपनी सनक में
तेरे लिये दिन-रात तपस्या करने वाले
जंगलों तक को भस्म करने में नहीं करता संकोच।
वाह रे मानव !
इक्कीसवी सदी के
सभ्यता और संस्कारों की डींगे हाँकने वाले
देख ज़रा स्वार्थों के जाले आँखों से हटाकर
तूने हरी-भरी सजी-सँवरी कुदरत के
सदाबहार उत्सव में डूबे परोपकारी संसार को
कोयले और राख का श्मशान बनाकर रख दिया
क्यों रे ऐसा क्यों?
Virewndra Dev Gaur
Chief Editor(NWN)