
प्लेग महामारी के तीन प्रकारों न्यूमोनिक प्लेग, सेप्टिसीमिक प्लेग एवं ब्यूबोनिक प्लेग में से न्यूमोनिक प्लेग सबसे भयानक है जिसने 21 सितंबर, 1994 को सूरत में दस्तक दी और कुछ ही दिनों में विकराल रूप ले लिया। महामारी के संक्रमण का मूल कारण यर्सिनिया पेस्टिस नामक एक जीवाणु था जो पिस्सू के माध्यम से चूहों से मनुष्यों में स्थानांतरित हुआ था और फिर ड्रॉपलेट संक्रमण के माध्यम से एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में तीव्रता से फैलने लगा। यह एक घातक प्लेग था जिसमें मृत्यु दर कुल संक्रमण के 50-60 प्रतिशत से अधिक थी। 24 सिंतबर, 1994 के न्यूयॉर्क टाइम्स समाचार पत्र में छपी खबर के अनुसार, इसके कारण वहाँ से लगभग 200,000 लोगों ने दो दिन के भीतर पलायन किया और चारों और अराजकता की स्थिति पैदा हो गई। यह पलायन चार दिनों के भीतर बढ़कर 400,000 से 600,000 तक पहुँच गया, जो सूरत की उस समय की जनसंख्या का लगभग एक चौथाई भाग था। यह स्वतंत्रता के बाद का सबसे बड़ा पलायन था जिसे मूर्त रूप देने हेतु अफवाहों से उत्पन्न भय के माहौल ने बड़ी भूमिका निभाई। इस प्लेग महामारी को अंततः वृहद स्वच्छता अभियान द्वारा नियंत्रित किया गया जिसके अंतर्गत शहर की व्यापक रूप से सफाई की गयी, डीडीटी और कीटनाशकों का छिड़काव किया गया। इसके अतिरिक्त टेट्रासाइक्लिन नामक एंटीबायोटिक दवा का भी व्यापक स्तर पर प्रयोग किया गया। 1995 में श्री एस.आर.राव को शहर के नगर आयुक्त के रूप में नियुक्त किया गया। उनके प्रशासनिक कौशल के परिणाम स्वरूप सूरत उस समय भारत का दूसरा सबसे साफ शहर बन गया। इस हेतु उन्होंने जन चेतना का जागृत किया और आवश्यकता पड़ने पर दंडात्मक उपायों का भी सहारा लिया सभी के सामूहिक प्रयासों से शहर का कायाकल्प हो गया। सूरत आज दुनिया का सबसे तेजी से विकसित होने वाला शहर है और पिछली तिमाही में स्वच्छता सर्वेक्षण में दूसरे स्थान पर रहा। कहानी का सार यह है कि स्वच्छता आज सूरत के निवासियों की जीवन शैली का हिस्सा बन गई है क्योंकि प्लेग के प्रकोप से उन्हें अनुभूति हुई कि अस्वच्छता असमय मृत्यु का कारण भी बन सकती है। अब सूरत वासी विकास और स्वच्छता के बीच संतुलन स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं।
वर्तमान में इंदौर स्वच्छता सर्वेक्षण में पहले स्थान पर है क्योंकि वहाँ के निवासी इस संबंध में पर्याप्त संवेदनशील हो गए हैं। आज इस हेतु उन्हें कर्तव्य परायणता का बोध हो गया है। इसी कारण अधिकांश इंदौर वासी न केवल स्वयं स्वच्छता की पहल करते हैं, वरन दूसरों को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित करते हैं। कचरा एकत्र करने वाले वाहन प्रतिदिन ध्वनि यंत्रों के माध्यम से उत्सव गीत ‘इंदौर हुआ है नंबर वन’ का वादन करते हैं, जिससे निवासियों का मनोबल बढ़ता है और उन्हें शीर्ष पर बने रहने के लिए और अधिक प्रेरित करता है, इस दृष्टि से यह कथन कि ‘मानव संवेदनाओं हेतु मनोविज्ञान बहुत कारगर है’ अत्यधिक प्रासंगिक प्रतीत होता है। इस सफलता का श्रेय सुदृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति, गैर-सरकारी संगठनों और निजी कंपनियों के सामूहिक प्रयासों तथा नगर निकाय एवं नगर वासियों के परस्पर विश्वास को जाता है। नगर निगम इंदौर की कचरा निस्तारण योजना अत्यन्त सराहनीय है क्योंकि निगम ने घरों से कचरे के 100 प्रतिशत संग्रह के लिए एक प्रणाली विकसित की है, जिसमें से लगभग 95 प्रतिशत कचरा गीले और सूखे कचरे के रूप में स्रोत पर ही अलग कर दिया जाता है। सूखे कचरे को रिसाइकलिंग प्लांट्स में भेजा जाता है और गीले कचरे का इस्तेमाल खाद बनाने और ऊर्जा के उत्पादन के लिए किया जाता है। उक्त वर्णित कहानी का सार यह है कि सुदृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति, सक्षम प्रशासनिक कौशल, नगर वासियों की संवेदनशीलता की जागृति और यदा कदा उदाहरण के रूप में अपनाए गए दंडात्मक तरीकों के परिणाम स्वरूप साधारण नगर वासियों में स्वच्छता की प्रवृत्ति का प्रसार कर इच्छित सफलता प्राप्त की जा सकती है। यह उदाहरण अन्य शहरों एवं शहर वासियों के लिए भी प्रेरक है।
वर्तमान परिस्थितियों में कोरोना महामारी के विरुद्ध घोषित युद्ध में विजय प्राप्ति हेतु मजबूत राजनैतिक इच्छाशक्ति, व्यापक रूप से स्वास्थ्य सेवाओं का प्रसार, जीवन रक्षक प्रणालियों एवं दवाओं की उपलब्धता, वृहद स्वच्छता अभियान, प्रभावशाली कोरोना जाँच किट की समुचित उपलब्धता, विशेषज्ञों द्वारा सुझाए स्वास्थ्य एवं स्वच्छता संबन्धी निर्देशों का अनुपालन और जनता के संवेदीकरण की आवश्यकता है। कोरोना नियंत्रण भारतीय परिप्रेक्ष्य में एक अत्यन्त चुनौती पूर्ण कार्य है क्योंकि आबादी का बड़ा हिस्सा अशिक्षित एवं निर्धन है जिनके लिए लॉकडाउन ने भोजन एवं दैनिक आवश्यकताओं की आपूर्ति की समस्या उत्पन्न कर दी है और आबादी का कुछ हिस्सा विभिन्न प्रकार के पूर्वाग्रहों से ग्रस्त है। सरकार एवं परोपकारी समाज के अथक प्रयासों से यद्यपि इस दिशा में सराहनीय कार्य किए जा रहे हैं, फिर भी चुनौतियाँ मुँह बाँयें खड़ी है। इन चुनौतियों से निपटने के लिए बड़े पैमाने पर परोपकारी कार्यक्रमों का आयोजन, जन मानस में भावनात्मक शक्ति का विकास और स्वास्थ्य और स्वच्छता के प्रति जागरूकता पैदा करना भी एक प्रमुख भूमिका निभाएगा। प्रकृति और विकास के सह अस्तित्व हेतु हमारे पूर्वजों द्वारा सुझाई गई प्राकृतिक जीवन शैली का अंगीकरण भी इस युद्ध में उपयोगी साबित होगा। जीवन दायिनी प्राकृतिक संसाधनों की उपासना के रूप में नदियों की पूजा और आराधना, जगत निर्माता के रूप में शिव की आराधना, पीपल के पेड़ (ऑक्सीजन का महान स्रोत) का पूजन, तुलसी जोकि औषधीय और शारीरिक प्रतिरक्षा प्रणाली उन्नयन अवयकों से परिपूर्ण है; को अतीत में अत्यंत महत्व दिया गया था और जोकि आज तक प्रचलित है, यद्पि कतिपय कारणों से उपासना का स्वरूप विकृत हो गया है। यह परीक्षा का समय हमें पुनः प्रकृति और मानव संबंधों को सुदृढ़ करने के लिए प्रेरित कर रहा है जो अन्योन्य कारणों से कमजोर हुआ है। अब उचित समय आ गया है जब स्वच्छता और स्वास्थ्य हमारा नारा बन जाना चाहिये। साथ ही प्राकृतिक शैली का अंगीकरण एवं प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण भी हमारी प्रकृति पूजा पद्धति का हिस्सा बन जाना चाहिये। यह आचरण न केवल उन बीमारियों को दूर करने में मदद करेगा जो अकसर हमें परेशान करती हैं, वरन हमें समग्र रूप से स्वस्थ एवं संपूर्ण व्यक्तित्व का धनी बनाने में सहायक सिद्ध होगा जो कि समृद्ध समाज की अवधारणा का अभिन्न अंग है।

डॉ. प्रशांत थपलियाल
सहायक प्रोफेसर
आर्मी कैडेट कॉलेज
भारतीय सैन्य अकादमी, देहरादून
The National News
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