बनना था दुर्गा तुम सब को
हाय! दलित तू बन बैठी
अत्याचार विरोध का अगवा बनकर
शैतानों पर बिजली बनकर गिरना था
पर हाय! वस्तु भोग की बन बैठी।
बच्ची हो तू या जवान
बस तेरी इतनी सी पहचान
तौली जाती तेरी जान
वस्तु के भाव ऐ मेरी मान।
कहीं लेकर मजहब की आड़
कहीं तुझको बस मौका ताड़
दिल को जूतों से कुचला जाता
शरीर गिद्ध बन नोंचा जाता
देख पड़ी तू लहूलुहान
ऐ दुर्गा नन्ही सी जान
देश मेरा महान कहलाता
पर जंगल का कानून लगाता
सदमे में है स्वयं विधाता
देश मेरा किस दिशा को जाता।
Virendra Dev Gaur

Chief Editor(nwn)