फैशन कपड़ों हेयर स्टाइल अथवा जूतों का ही नहीं होता। इसे विचारों, आदतों ,सामाजिक ,आर्थिक व राजनीतिक व्यवस्थाओं में भी ढूंढा जा सकता है। लेखक फैशन परस्ती को राजनीतिक व्यवस्थाओं में ढूंढने की कोशिश कर रहा था तो पता चला की आजकल लोकतंत्र की बयार है। दुनिया या धरती के हर कोने से हर भाषा में लोकतांत्रिक व्यवस्था का हो हल्ला है। यद्यपि अभिव्यक्ति के तौर तरीके कई बार या अक्सर अधिनायक वादी हो जाते हैं। लोकतांत्रिक फैशन पर विचार करते समय एक प्रश्न उठना अवश्यंभावी था की यह पृथ्वी के किस देश में सर्वाधिक संपन्न एवं विविध रूप में दर्शनीय होता है। जनसंख्या तथा क्षेत्रफल के हिसाब से तो रूस, चीन, ब्राजील ,यूएसए ,कनाडा ,ऑस्ट्रेलिया तथा भारत सबसे तगड़े दावेदार होते हैं। इन प्रतियोगियों में चीन की भागीदारी षड्यंत्र का हिस्सा लगती है मगर 140 करोड़ मानवों का देश स्वयं को जनवादी घोषित करें तो मान लेने मात्र से लोकतांत्रिक मान्यताओं का हनन नहीं हो जाता है। गुणात्मक दृष्टि से फिनलैंड , स्वीडन , डेनमार्क, नॉर्वे तथा कनाडा लोकतंत्र के वास्तविक व सामयिक ध्वजवाहक हो सकते हैं। मगर विशाल राष्ट्र राज्य के रहते हुए अति लघु , जनसंख्या या क्षेत्रफल की दृष्टि से , राष्ट्र राज्य को सिर्फ गुणों के आधार पर सर्वाधिक फैशन परस्त मानना अनुचित लग सकता है!
ऊपर लिखे गए देशों का लोकतांत्रिक होना किस गुणधर्म से सिद्ध हो सकता है। मेरे विचार से नागरिकों को उपलब्ध आजादी। वह भी बराबर की आजादी। समय तथा स्थान में परिवर्तन स्वाभाविक है। इसके साथ साथ भूमिका तथा अदा कारों में व्यक्तित्व वा कर्तव्यों का बदलाव भी होगा। बदलाव नहीं होगा तो सिर्फ गुणधर्म यानी पूर्ण आजादी में।
इस गुणधर्म को ध्यान में रखते हुए लेखक को कठोरता के साथ हिंदुस्तान के अलावा अन्य विकल्प ढूंढना मुश्किल हो गया है! पिछले 70 वर्षों के इतिहास के संस्मरण मात्र से पाठक लेखक से सहमत हो सकते हैं।
स्वतंत्रता आंदोलन के पश्चात महात्मा गांधी की हत्या के बाद आजकल के महाराष्ट्र तथा मध्य प्रदेश में ब्राह्मणों के खिलाफ दंगे हुए या यूं कहिए आजादी का प्रदर्शन हुआ था। यह स्वस्थ परंपरा भारत के प्रत्येक कोने में विविध रूपों में प्रकट होती रहती है। उत्तर पूर्व प्रांतों में हिंदी भाषी इस आजादी को अपनी छाती पर सहते रहते हैं। पिछले दो दशकों से कश्मीर के पंडित इस आजादी को लिए पूरे देश के भ्रमण पर हैं।
1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उत्तर भारत में इस स्वातंत्र्य का भारी विस्फोट हुआ था जो लेखक ने नग्न आंखों से देखा था क्योंकि उस समय नजर का चश्मा नहीं लगा था। इसमें हिंदू व मुस्लिम मवालियों ने सिखों पर आजादी का मतवाला प्रयोग किया था। कुछ वर्ष पूर्व गुजरात में दो समुदायों ने इस अधिकार का खुल्लम खुल्ला प्रयोग एक दूसरे पर किया था l
किसी देश की स्वतंत्रता की स्थिति को देखना है तो इसके लिए शिक्षा संस्थानों पर नजर बढ़ाना आवश्यक है। भारत के शिक्षा संस्थाओं में छात्रों को आजादी है कि वह समय पर स्कूल आए या ना आए, वह कक्षा में बैठकर शिक्षक की बात को सुने या ना सुने, शिक्षक द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन करें या ना करें, कक्षा में पुस्तक व पुस्तिका लेकर आए या ना आए ,सड़कों पर तथा स्कूल प्रांगण में देश के खिलाफ नारे लगाएं या ना लगाएं। इस मानक को यदि ध्यान में रखा जाए तो भारत में उपलब्ध स्वतंत्रता का स्तर और भी ऊंचा हो जाता है !
वर्तमान में जब देश और दुनिया कोविड-19 के खिलाफ युद्ध लड़ रही है उस समय केवल और केवल मेरे देश में स्वास्थ्य कर्मियों, सफाई कर्मियों तथा कानूनी व्यवस्था देखने वाले कर्मचारियों पर हमला करने की स्वतंत्रता नागरिकों को प्राप्त है। या कहना चाहिए इस अधिकार को कुछ लोगों ने जबरन हथिया लिया है। बीमारों को ढूंढने तथा उन्हें उचित इलाज करवाने वालों को मारना पीटना स्वतंत्रता का एक उच्च मानदंड हो सकता है।
आजादी के समय से ही भारत अंतरराष्ट्रीय आजादी का भी अखाड़ा बन गया है। चीन ने दलाई लामा को तिब्बत से बाहर रहने को आजाद किया तो भारत उनसे अराजनीतिक होने की आजादी चाहता है। पश्चिम बंगाल की साम्यवादी सरकार ने तस्लीमा नसरीन को पश्चिम बंगाल के बाहर रहने को आजाद किया तो भारत सरकार चाहती थी कि नसरीन भारत के बाहर स्वातंत्र्य का लाभ उठाएं।
हाब्स ने अपनी एक पुस्तक में प्राकृतिक अवस्था का चित्रण किया है जहां प्रत्येक मनुष्य अन्य मनुष्यों के साथ संघर्षरत था। हाब्स ने इस अवस्था से बाहर निकलने की आवश्यकता समझी थी। लगता है हाबस गलत निष्कर्ष पर पहुंचा था। वह अवस्था पूर्ण लोकतंत्र की अवस्था रही होगी। भारतवर्ष की वर्तमान अवस्था हॉब्स की प्राकृतिक अवस्था से मेल खाती है। भारत में उससे भी बढ़कर स्थिति है। यहां व्यक्ति अन्य व्यक्तियों से संघर्षरत हो सकता है इसके अलावा विविध समुदाय अन्य विविध समुदायों के साथ संघर्षरत रह सकते हैं। अर्थात सतत संघर्ष की अपार संभावनाएं उपलब्ध हैं!
संभवत हाब्स के लेखन से संघर्ष शब्द बाहर किया जाना चाहिए। यह संघर्ष नहीं वरन “बराबरी के स्वातंत्र “का नजारा था। भारत की वर्तमान अवस्था से तो यही परिलक्षित होता है।
surendra dev gaur