गए बरस पाँच सौ
हम रीते के रीते
सिसक-सिसक रो-रो कर
पाँच सौ बरस बीते।
न पूछो श्री राम के अपमान पर
क्या गुजरी
क्या गुजर रही
ये पाँच सौ साल प्रभो कैसे बीते
जिगर के छालों की टीस
दिल की आस के उछालों की खीज
अब और सही नहीं जाती
मत पूछो भाई हम कैसे हैं जीते।
सदियों से हम
कड़वे घूँट हैं पीते
लज्जा में जी रहे
खून के आँसू हम पीते
श्री राम की छवि से
हम आँखे मिलाने का माद्दा खो चुके
मन्दिर बनाने का वादा हम सदियों ढो चुके
कभी बादशाहों
कभी नवाबों से रू-ब-रू रहे
पर छलकते गमों पर किससे कौन क्या कहे
फिर फिरंगियों की शातिराना बाजियों का युग आया
मस्जिद-मन्दिर का टकराना उन्हे खूब रास आया
अब कहते हैं हम आजाद हैं
पर अत्याचारी बर्बर-बाबर की जो औलाद हैं
उनके सामने अपने ही देश में हम
लाचार खड़ी फरियाद हैं।
हमारी अन्तर-आत्मा हमें
कचोट रही
धिक्कार रही
कैसी बेबसी-कैसी लाचारी किसी ने खूब कही।
Virendra Dev Gaur
Chief Editor (NWN)